Maa Shri Kaushal ji Udhyodhan

पूज्या मां श्री के चरणों में बारंबार वंदन ... 

सभी को सादर जय जिनेंद्र

माँ श्री कौशल जी ने आज के उद्योधन में बताया की हर एक जीव जिसका मन होता है वह कोई ना कोई धर्म का अनुयायी होता है चाहे वे उसको माने या ना माने| लेकिन हमने धर्म को सुख और दुख से जोड़ दिया है, हम यह मानने लगे है कि अगर रोज भगवान की पूजा करेंगे तो हमारे साथ अच्छा होगा नहीं करेंगे तो बुरा होगा, जो व्यक्ति भगवान की रोज पूजा करता है और उसके साथ कुछ गलत हो जाता है तो वह सबसे पहले भगवान को गाली देता है| हम यह भूल जाते हैं कि अच्छा और बुरा हमारे कर्मों से बंधा है, हमारे पूर्व कर्मों पर निर्भर करता है कि हमारे साथ अच्छा होगा या बुरा होगा| हम यह देख सकते हैं कि दुख हर किसी को आता है, संलेखना के समय बड़े-बड़े मुनि महाराज भी दुख का सामना करते है, जैसे की विद्यासागर जी महाराज, विद्यानंद जी महाराज | धर्म हमें दुख को सहने की शक्ति देता है, दुख आने पर भी आपको महसूस ना हो वह शक्ति धर्म से हम अर्जित कर सकते हैं| लेकिन जब भी धर्म की बात आती है हम उसे रोटी से जोड़ देते हैं और कौन कितना व्रत कर रहा है, कौन क्या-क्या छोड़ रहा है वह देखने लगते हैं, चाहे उसकी पीड़ा हो रही हो, चाहे उसकी मन खाने में पड़ा हो|  माँ श्री जी आगे बताती है की स्वाध्याय करते समय मेने पढ़ा कि कुंद कुंद आचार्य ने लिखा है कि यह आत्मा का दमन है, शरीर को क्रश करना है| हमें समझना चाहिए कि जैसे गाड़ी को चलाने के लिए पेट्रोल की आवश्यकता होती है वैसे ही शरीर को चलाने के लिए आहार की आवश्यकता होती है|  यह शरीर बहुत अमूल्य है और हमें इसको आत्म कल्याण में लगाना चाहिए|  एक बार एक क्षुलक जी मुजफ्फरनगर गए, चौमासे का समय था, उनके पुण्य का बंद नहीं था जिसकी वजह से उनके आहार की व्यवस्था नहीं हो पाई, दिन प्रतिदिन उन्हें उनको कमजोरी आ गई और वह एक दिन बैठे-बैठे गिर गए, जिससे उनके माथे पर चोट भी आ गई, उन्होंने डॉक्टर से इलाज भी करवाने से मना कर दिया, जब उनसे पूछा गया कि आप ने आहार क्यों नहीं किया तो उन्होंने कह दिया कि उन्होंने व्रत रखे हुए थे, उन्होंने उसको व्रत का रूप दे दिया| उनके इस त्याग को देखकर समाज चौके लगाने लगी और क्षुलक जी को भी समझ आ गया कि अगर आहार लेना है तो बीच-बीच में व्रत भी करते रहना पड़ेगा| इसी तरह मुनि महाराज पुरानी धारणाओं को मानते चले आ रहे है, और संलेखना के समय पहले रोटी  छोड़ते हैं फिर खिचड़ी फिर दलिया फिर दूध फिर छाछ और फिर पानी, ऐसे अपने शरीर को क्रश करते चले जाते हैं, और सारा ध्यान इसी में लगा रहता है, विपरीत इसके हमे  पुरानी धारणाओं का मनन करना चाइये, नवीनतम सोच के साथ हमें आत्मा पर ध्यान लगाना चाहिए, उसके कल्याण पर ध्यान लगाना चाहिए उसके कषायों को नष्ट करने पर और एक-एक करके अपने सारे कर्मों को छोड़ने पर ध्यान लगाना चाहिए वही सहज रूप से समाधि मरण है और सच्ची संलेखना है| 

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