Maa Shri Kaushal ji Udhyodhan

पूज्या मां श्री के चरणों में बारंबार वंदन ... 

सभी को सादर जय जिनेंद्र

पूज्या मां श्री कौशल जी की जय सभी को सादर जय जिनेंद्रमाँ श्री जी २ स्वरुप को समझाते हुए बताती है की,

  1. एक बाह्य रूप होता है, जिसको चल स्वरुप कहते है, जैसे हमारा शरीर - परिधि रूप 
  2. दूसरा अंतरंग रूप होता है, जिसको अचल स्वरुप कहते है, जैसे हमारी आत्मा (जो दिखाई नहीं देता) - स्थिर रूप 


जैसे की, गाड़ी का पहिया गति शील होता है, घूमता है और उसकी धुरी स्थिर होती है| अगर उसकी धुरी मैं स्थिर्ता न हो तो पहिया घूम नहीं पायेगा और गाड़ी नहीं चल पायेगी, ऐसे ही हमारे जीवन के भी २ रूप है, एक बहार का रूप, जिसमे गति है, और एक अंतरंग रूप है, जो आत्मा का रूप है, जो स्थिर होना चाहिए| इसीलिए कहा गया है की हमे बहार के रूप मैं शक्ति चाहिए, जिससे हम गति शील हो संके और आत्मा मैं शान्ति चाहिए जिससे हममे स्थिरता आये| शक्ति के बिना शान्ति सुरक्षित नहीं हो सकती और शांति के बिना शक्ति आत्मघाती हो जाती है, शान्ति के आभाव में, आदमी हाथ का चाकू अपने को भी मार सकता है और दूसरे को भी|  हमने इस विज्ञान के द्वारा शक्ति तो प्राप्त की लेकिन शान्ति को भूल गए, इसीलिए जीवन नारकीय बन गया है, आत्मघाती हो गया है, हर कोई मर जाना चाहता है, इसीलिए आजकल आत्महत्या के केस भड़ते जा रहे है| जो देश शक्ती संम्पन है वो शान्ति की खोज मैं है, और जो देश शान्ति से रहित है वो शक्ति की तरफ पूर्णंत है| शान्ति हो तो इतनी ऊर्जा पैदा हो जाती है की वो दृष्टि पात करते ही किसी को जीवन दे भी सकता है और ले भी सकता है और जिसके पास केवल शक्ति हो शान्ति ना हो तो उससे तो खतरा ही खतरा है| हमने शान्ति को पाने के लिए बहुत उपाए किये| एक शान्ति को पाने के लिए हमने बाह्य उपाये किया, धन संजोया, जितना अधिका अधिक धन होगा उतनी शान्ति होगी, तो धन के पीछे दौड़ते रहे| फिर हमने शक्ति के लिए भी प्रयास किया की जितना शक्तिशाली होगा उतना सुरक्षित होगा| और शक्ति को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उन्हें भी संतोष नहीं है|  दोनों मैं ही शक्ति और शांति की आव्यशकता है| तो माँ श्री जी ने आज इसके लिए दो बातें बताई -

  1. एक बात है, हमने शांति को पाने के लिए व्रत, नियम, शील, आदि, ये सब धारण किये, ये सब जीवन का बाह्य रूप है,
  2. दूसरा वो है जिन्होंने भीतरी रूप से शांति को पाने की कोशिश की| 


जितना आज धर्म के नाम पर क्रिया काण्ड हो रहा है, ये सब शरीर पर हो रहा है, जैसे हमने घर छोड़ा, कपडे छोड़े, खाना छोड़ा, अलग अलग रसो का त्याग किया, १ दिन का, २ दिन का उपवास किया, ये सब क्या है, बाह्य जीवन है और इन बाह्य क्रियाओँ को हमने धर्म मान लिया| लेकिन शान्ति के अभाव मैं ये सुख देने वाला नहीं है, ये सुविधा दे देता है लेकिन सुख शान्ति नहीं दे सकता| ये आजकल सबसे ज्यादा भ्रान्ति हो रही है| ये शरीर का धर्म है, इससे शरीर के वात, पित्त, कफ संतुलित हो जायेंगे, शरीर के बहुत सारे रोग दूर हो जायेंगे| दूसरा है, आत्मा का धर्म, जो शान्ति प्राप्त करना है, शान्ति कब होती है? जब अशांति न हो और अशांति कब होती है जब क्रोध, मान, माया, लोभ होता है| ये आत्मा के रोग है| तो शरीर की क्रियाओं को करके उसको आत्मा का धर्म मानना मूर्खता है, अज्ञान है, इससे शरीर तो क्रश होगा लेकिन आत्मा पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा| और जो आत्मा के कषायों को दूर करने का उपाए करते है वो शरीर की क्रियाओं पर इतना जोर नहीं देंगे, बस इतना ही करेंगे जिससे उनके वात, पित्त, कफ अंसन्तुलित न हो| शरीर और आत्मा का धर्म, ये दोनों अलग अलग है, ये दोनों एक दूसरे के सहियोगी हो सकते है लेकिन एक दूसरे के साथ नहीं है| तो क्या किया जाये? क्या ये शरीर के व्रत आदि नियम छोड़ दिए जाएँ? अगर इनको अधिक मात्रा मैं करोगे तो शरीर रोगी हो जायेगा, उसकी शक्ति छींड हो जाएगी और इसको बिलकुल नहीं करोगे तो भी हानि कारक है| तो शरीर को संतुलन मैं लाने के लिए व्रत आदि अपेक्षित है, ऐसी वस्तुओं का सेवन जो शरीर को सरोगी बनाता है उनका त्याग आव्यशक है और आत्मा की शुद्धि के लिए किसकी आव्यशकता है ? पहले तो उसका निरिक्षण करो की मुझे रोग क्या है? क्रोध, मान, माया, लोभ| और निरीक्षण करने के लिए अंतर यात्रा करनी पड़ती है| शरीर की क्रियाओं का धर्म, आत्मा का धर्म नहीं हो सकता| ये समझना निश्चित है| जैसे गाडी मैं बैठना बेकार नहीं है लेकिन गाडी मैं बैठने को ही महावीर जी पहुंचना कहो तो बेकार है| शरीर का अनुशाशन शरीर को स्वस्थ रखने के लिए है धर्म मैं साधन बनने के लिए है लेकिन ये धर्म नहीं है| तीन काल मैं भी ये धर्म नहीं है| छहढाला का एक श्लोक:कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जेज्ञानी के छिनमांहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं तेमुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायोपै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौकरोड़ों जन्मो तक भी तुम इन क्रियाओं का पालन करो, वस्त्र छोड़ दो, व्रत करो, या दीर्घ कालीन तप करो, पाऊँ के अंघूठे के ऊपर खड़े होकर ध्यान करे, तो भी अज्ञानता है जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं होगा| जो आत्म शुद्धि करता है (मन, वचन, काये ), आत्मा की बीमारी के कीटाणु की शुद्धि करता है, तो आत्म शुद्धि होगी और वही आत्म धर्म है| 

आगे माँ श्री जी ने ज्ञान वृष्टि करते हुए बताया की जीव के ३ तरह के भाव होते है - 

  1.  शुभ 
  2. अशुभ 
  3. शुद्ध 


जो तुम पूजा, भक्ति, दान करते हो ये सब शरीर की क्रिया है, ये सब शुभ भाव है, इन शुभ भावो से तुम्हे शुभ कर्म का बंद होगा और जब कोई हिंसा, चोरी कर रहा हो तो वो अशुभ कर्म है और इनसे पाप कर्मो का बंद होता है, और वह नर्क में जाता है| और जिसमे न शुभ हो, न अशुभ हो, केवल आत्म स्वरुप में स्थिर हो वो धर्म है, उससे कर्म की निर्जरा होती है, और जब कर्म कटेंगे तो मोक्ष प्राप्त होगा| इसलिए शुभ कर्म भी धर्म नहीं है, पाप से बचाता है, लेकिन धर्म नहीं है| अशुभ भाव तो है ही साक्षात अधर्म लेकिन शुद्ध भाव ही धर्म है| सारे शास्त्रों का यही सार है| हमे शुभ भाव से शुद्ध भाव की तरफ भड़ना है| जैसे मूर्ति भगवान् नहीं है वो भगवान् की तरफ इशारा कर रही है, हमे मूर्ति की तरफ देखते हुए उधर देखना होगा जिस तरफ वो इशारा कर रही है| मूर्ति नासाग्र दृष्टि की और इशारा कर रही है, हाथ चंचल न हो, स्थिरता की और भड़ना होगा| ॐ ऐसा बीज अक्षर है जिसको सब धर्म मानते है, और भी है, जैसे ह्रीं, श्रीं | ये रास्ते है आत्म ध्यान मैं जाने के, जैसे पहाड़ी पर चढ़ने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है और जब पहाड़ पर पहुँच गए तो लाठी छोड़ देते है वैसे ही ॐ के सहारे आत्म ध्यान की तरफ भड़ना है फिर वह भी छोड़ देना है| आखिर मैं माँ श्री जी ने ॐ को सही ढंग से बोलने और उसके द्वारा ध्यान लींन होने का सबको अभ्यास करवाया| सबको कम से कम २ से ५ मिनट रोज सुबह करने को कहा| उसके आगे का पाठ माँ श्री जी ७ दिसंबर २०२५ की मीटिंग मैं बताएँगे| माँ श्री जी के आज की ज्ञान वर्षा में सभी पधारे हुए सज्जन सराबोर हो गए और मोक्ष मार्ग की और अग्रसर हो चले| माँ श्री कौशल जी की जय | 

 माँ श्री कौशल जी की जय | 

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