पूज्या मां श्री के चरणों में बारंबार वंदन ...
सभी को सादर जय जिनेंद्र
प्रति माह की ही भांति इस माह के प्रथम रविवार को ऋषभांचल युवा संगम की बैठक हुई।आज का दिन बहुत विशेष है आज श्री चन्द्रप्रभु भगवान और श्री पार्श्वनाथ भगवान के जन्म और तप कल्याणक है इसके साथ ही आज वर्ष का प्रथम रविवार भी है... आज युवा संगम के सदस्यों ने श्री ऋषभांचल में स्थित रत्नमयी पंचबालयति भगवान का अभिषेक व पूजन किया।। इसके पश्चात सभी ने पूज्या मां श्री जी के उद्बोधन का लाभ लिया....मां श्री जी ने आज हिंसा के विषय में समझाया कि हिंसा सिर्फ बाहरी नहीं होती, दूसरो की हिंसा के भाव करने से ही हमारी आत्महिंसा हो जाती है। पर की हिंसा हो अथवा ना हो यह उसके कर्म का फल है परन्तु भाव मात्र करने से हम हिंसक हो जाते हैं।इस संदर्भ में मां श्री जी ने एक उदाहरण दिया कि स्वयंभूरमण नाम के एक बहुत बडें समुद्र में एक विशाल काम मच्छ रहता है वह छः महीने में भोजन हेतु अपना मुंह खोलता है जितनी भी मछलियां उसके मुंह में आ जाती हैं वही उसका भोजन होता है विशालकाय होने से उसके दांतों में बहुत गैप होता है जिसके कारण छोटी-छोटी मछलियां उसमें से निकल जाती हैं फिर वह मुंह बंद कर लेता है यही उसका भोजन उस समय का होता है उसी मत्स के कान में एक छोटा मगरमच्छ रहता है वह सोचता है कि यह मत्स कितना मूर्ख है की इतनी सारी मछलियों को छोड़ देता है मैं इसके स्थान पर होता तो एक भी मछली को ना छोड़ता। बड़े मत्स ने यद्यपि कोई भाव नहीं किया सिर्फ उसका जो भोजन है मुंह खोला और वह ग्रहण किया परंतु हिंसा उसने की बाहरी हिंसा उसके कारण से उसको मरकर छठे नरक में जाना पड़ता है, और वहीं छोटे मगरमच्छ ने जिसने की हिंसा नहीं की लेकिन भावों में ऐसे परिणाम किए जिसके परिणाम स्वरुप उसे मरकर सातवें नर्क में उत्पन्न होना पड़ता है। इसलिए बाहरी हिंसा से ज्यादा आन्तरिक हिंसा को छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्म हिंसा नहीं होगी तो बाहरी हिंसा होगी ही नहीं।
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