पूज्या मां श्री के चरणों में बारंबार वंदन ...
सभी को सादर जय जिनेंद्र
मां श्री जी ने आज के उद्योधन में बताया कि, एक हमारा ही जैन धर्म ऐसा है जिसने विश्व को अनेकांतवाद का सिद्धांत दिया, यह जैन धर्म का एक मूल सिद्धांत है, अनेकांतवाद यानि एक भी और अनेक भी, अर्धात, हर किसी एक वस्तु में अनेक प्रकार के विरोधी गुण पाए जाते हैं जो सभी एक साथ एक समय में रहते हैं, इसको आगे समझाते हुए माँ श्री जी ने कौवे का उदाहरण दिया, कौवे का रंग काला भी होता है सफेद भी होता है, काला उसके पंखों का और सफेद उसकी हड्डियों का, काला और सफेद दोनों ही विरोधी रंग हैं लेकिन उसके बावजूद दोनों एक साथ एक ही समय में एक ही वस्तु में पाए जाते हैं| इसी तरह कौवे का रंग लाल भी है और पीला भी, लाल उसके रक्त का और पीला उसके पित्त का, इसका मतलब कोई अगर कौवे को काला कहे और कोई सफेद कहे तो दोनों में से कोई भी गलत नहीं है दोनों ही अपनी द्रष्टि के अनुसार सही है| इसी मैं आगे उदहारण देते हुए मां श्री जी ने आम का उदाहरण दिया, आम हर समय अपना रूप बदलता रहता है पहले वह एक छोटा आम होता है जिसे आम्बी कह देते है और फिर वह आम बन जाता है और फिर सड़ कर कुछ और लेकिन हमेशा वह आम ही रहता है, कभी उसका रंग हरा होता है तो कभी उसका रंग पीला और कभी दोनों साथ, कभी वह खट्टा होता है कभी वह मीठा और कभी दोनों साथ, यही अनेकांतवाद है| जब वस्तु के पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए अनेक दृष्टिकोण का उपयोग कर के वस्तु का स्वीकार किया जाए तो उस शैली को अनेकांतवाद कहते हैं। वस्तु का स्वरूप इतना विस्तृत व गहन है कि किसी एक वाक्य में उसे सम्पूर्ण रूप से समझाया नहीं जा सकता।अनेकांतवाद को और अच्छे से समझने के लिए उसके चार जोड़े बनाए गए -
१. एक-अनेक - जो एक भी है और अनेक भी
२. नित्य-अनित्य - जो हमेशा एक सा ही रहे और परस्पर बदलता भी रहे
३. सत्-असत् - जिसका कभी नाश नहीं होता और जिसका कभी जन्म नहीं होता
४. भिन्न-अभिन्न - जिसमे अलग अलग गुण भी हो और तब भी एक ही हो इसके अलावा इसको समझने के लिए और भी कई जोड़े बनाये जा सकते है| इन सभी को विस्तार से समझाने के लिए माँ ने काफी उदहारण दिए| अपने आस-पास कोई भी वस्तु उठा कर देख लो सभी में विरोधी गुण साथ में मिल जाएंगे जैसे अपनी रक्त कोशिका, वह बीमार करने वाले कीटाणु को खत्म भी करते हैं और हमें जीवन भी देते हैं| जीव अहिंसक भी होता है जिससे वह वातावरण और संसार की रक्षा कर सके और हिंसक भी है जिससे संसार का संतुलन बना रहे| कोई भी वस्तु कभी समाप्त नहीं होती, वह परस्पर अपना रूप बदलती रहती है, जैसे कि यह चटाई, जब आई थी तो उसका अलग ही स्वरूप था अब कुछ अलग रूप है और एक दिन टूट जाएगी, जल जाएगी, राख़ का रूप रूप ले लेगी परंतु खत्म नहीं होगी| भगवान आदिनाथ ने 6 विद्याएं दी -
1 असि
2 मसि
3 कृषि
4 वाणिज्य
5 विद्या
6 शिल्प
इनमे से सबसे पहली असि, यानि अस्त्र सस्त्र का ज्ञान जिससे हम अपनी रक्षा कर सके| जब हम अपनी रक्षा करने के लिए सस्त्र उठाते है तो वह हिंसा नहीं मानी जाती| परन्तु वह निहत्ता न हो, नाबालिक न हो, अनाथ न हो, पीठ किये हुए न हो| हमारा धर्म ही सीखाता है कि अपने अंदर के शत्रु यानी राग द्वेष को मारो, अपनी आत्मा पर आघात करो और दूसरी तरफ कहता है कि अहिंसा परमो धर्म| यहाँ भी विरोधाभास है|
स्याद्वाद (= स्यात् + वाद), किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धान्त है। यानि अन्य दर्शनों की अपेक्षा से| अगर आप अपने पिता के बेटे हो तो आप अपने पुत्र के बाप भी हो, अपने भतीजे के चाचा भी हो| अगर कोई बिना पूर्ण्तिय जाने बस यही कहे की नहीं ये तो चाचा ही है तो वह पूरी तरह सही बात नहीं होगी| यहाँ सारा खेल 'भी' और 'ही' का है| एक बार महाराज श्री श्रावक के घर आहार के लिए आए ,जब उन्होंने बहू से उनकी आयु पूछी तो बहू ने 5 साल बताई, अपने पति की एक साल और अपने ससुर के लिए तो यह कहा कि वह अभी पैदा ही नहीं हुए| ससुर जी यह सभी बातें सुन रहे थे, ससुर जी समझ नहीं सके और विचलित हो गए तो उन्होंने महाराज जी से पूछा कि महाराज जी यह मेरी बहू क्या कह रही है, महाराज जी ने तब समझाया कि इसका अभिप्राय आपकी धर्म आयु को बताना था| हम दो बार जन्म लेते हैं एक बार जब माँ जन्म देती है(शारीरक जन्म) और एक बार जब गुरु या जिनवाणी जन्म देती है(आत्मा का जन्म)एक बार एक राज्य में भगवान महावीर स्वामी का समोशरण हो रहा था, वहां राजा श्रेणीक और रानी चेलना भी आए थे, जब वह महल की ओर जाने लगे तो रास्ते में उन्हें एक साधु तपस्या में ध्यानस्त दिखे, रानी ने उनके साधुवाद को नमस्कार किया| रात में जब वह सो रही थी तब उनका एक हाथ रजाई से बाहर आ गया और सर्दी की वजह से बिलकुल ठंडा पड़ गया, तब उन्हें उस साधु की याद आई और नींद में बोल उठी की ओह! उन साधु का इस सर्दी में क्या हाल हो रहा होगा| यह बात राजा ने सुन ली और सोचने लगे कि यह रात में भी उन साधु के बारे में क्यों सोच रही है लगता है इन दोनों का कोई माजरा है| सुबह राजा श्रेणीक भगवान के समोशरण में जाने लगे तो महल में उन्हें अभयकुमार मिले, अभयकुमार बहुत ही समझदार सेनापति थे, राजा ने अभय कुमार को गुस्से में बोला कि महल में आग लगवा दो, अभयकुमार ने भांप लिया कि जरूर कुछ ऐसी बात है जिससे राजा चिंतित हैं| भगवान की देशना में जब भगवान से प्रश्न पूछा कि यहां के राज्य में सबसे पतिव्रता पत्नी कौन है तो भगवान ने चेलना का नाम लिया, तब राजा चौक गए और सोचने लगे कि भगवान तो झूठ बोल नहीं सकते और पूछ बैठे की फिर वह रात में साधु को क्यों याद कर रही थी, तो भगवान ने उनकी गलतफहमी दूर की| राजा तुरंत महल की ओर भागे और अभयकुमार से पूछने लगे कि तुमने महल में आग लगा दि या नहीं, अभय कुमार बोले महाराज आपका आदेश था तो लगवा दी| रानी चेलना का क्या हुआ होगा? तो अभय कुमार बोले की चिंता ना करें महाराज मेने बस महल के आंगन में ही थोड़ी सी आग लगवाई थी| इस कहानी का तात्पर्य यह है की हम किस नजरिये से किसी बात को सोचते है उसपर बहुत कुछ निर्भर करता है| स्याद्वाद के अनुसार प्रत्येक प्रकार का ज्ञान (मति, श्रुति,अवधि, मनः पर्याय) सात स्वरूपो में व्यकत किया जा सकता है, जो इस प्रकार है-
(१) है :- स्यात्-अस्ति
(२) नहीं है :- स्यात्-नास्ति
(३) है और नहीं है :- स्यात् अस्ति च नास्ति च
(४) कहा नहीं जा सकता :- स्यात् अवक्तव्यम्
(५) है किंतु कहा नहीं जा सकता :- स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च
(६) नहीं है और कहा जा सकता :- स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च
(७) नहीं है और कहा नहीं जा सकता :- स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च
आंखिर में माँ श्री जी ने समझाया की हमे भगवन ने २ आँखे और २ कान दिए है लेकिन जीभा एक, जिससे हम पहले अच्छे से सुने और देखे तब बोले और कम बोले| अगर हम किसी बात को पूरी तरह सुनकर, समझकर, कोई निर्णय लेंगे तो हो सकता है की गलती न हो| आजकल घर घर की लड़ाई मैं यही सबसे बड़ा कारण है| हमे कोशिश करनी चाहिए की हम अनेकांतवाद और स्याद्वाद को अपने व्यवहार मैं लाए|
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