Maa Shri Kaushal ji Udhyodhan

पूज्या मां श्री के चरणों में बारंबार वंदन ... 

सभी को सादर जय जिनेंद्र

आज की अभिषेक बैठक बहुत अच्छे से मां श्री कौशल जी के पावन सानिध्य में संपन्न हुई ।
आज मां श्री ने अपने उद्बोधन में बताया कि शरीर और आत्मा अलग होते हुए भी मिली जुली होती हैं और साथ साथ ही चलती हैं , अगर शरीर को काया को तकलीफ हो अस्वस्थ हो तो आत्मा मन भी अस्वस्थ हो जाता हैं और अगर मन अच्छा नहीं हो हताश हो तो शरीर भी अस्वस्थ हो जाता हैं तो हम मन और शरीर को अलग अलग कैसे मान सकते हैं ,जैसे एक घी से भरा घड़ा हो तो आप उसे क्या कहोगे घी का घड़ा क्योंकि अलग होते हुए भी वो दोनो साथ हैं । ऐसे ही शरीर और आत्मा एक साथ होते हैं और उसे हम कहते हैं जीव । हमें यात्रा जहां से शुरू हों वहां से शुरू करना हैं जहां सम्पन हों वहां से नहीं । शरीर और आत्मा साथ हैं यह शुरुवात हैं और इसका अलग होना यात्रा पूर्ण होना हैं । अब इस काया का ध्यान रखना और मन का ध्यान रखना दोनो जरूरी हैं । अब इसका ध्यान रखने के लिए कुछ काम करना जरूरी होते हैं , कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो आवश्यक होते हैं और कुछ जिनके न करने से हमें कुछ फर्क कम पड़ता हैं । जैसे नहाना काया को शुद्ध करना जरूरी हैं ना करें तो इसमें रोग उत्पन्न हो जाता हैं , लेकिन एक दो दिन न भी नहाए तो चल तो चल तो सकता हैं लेकिन अगर भोजन ना करें तो तो काया चल नही पाएगी। तो कुछ आवश्यक काम होते हैं , आवश्यक मतलब  आ वश जिससे हम ना हो किसी के वश में । वह कार्य जिन्हें करने से हम किसी के वश में ना हो वह आवश्यक काम हैं । हम हर क्रिया में पराधीन रहते हैं , हमारी हर क्रिया पराधीन हैं हमारी किसी ने तारीफ कर दी तो हम फूल के गुप्पा हो जाते हैं और वही किसी ने बुराई कर दी तो हम हताश हो जाते हैं , हम कमजोर हो जाते हैं । एक किस्सा लिंकन जी द्वारा उनकी ऑटोबायोग्राफी से मां श्री ने बताते हुए बताया "एक बार मैं (अब्राहम लिंकन) व्हाइट हाउस में बहुत जरूरी भाषण देने जा रहा था ,बीच में मेरी गाड़ी में खराबी आगयी, कोई और रास्ता ना मिलने पर सड़क पर उतरकर एक टैक्सी वाले से कहा व्हाइट हाउस तक छोड़ने का बिना अपनी पहचान बताए। ड्राइवर ने एक बार में मन्ना कर दिया , उससे फिर विनती की बहुत जरूरी हैं पास में ही हैं आप मुझे छोड़ दो तब ड्राइवर ने कहा अभी राष्ट्रपति का भाषण आना हैं मुझे वह सुनना हैं अभी में कहीं नहीं जाऊंगा , यह सुनकर मैं आसमान कि ऊंचाई पर पहुंच गया को मेरा इतना प्रभाव हैं की मेरा भाषण सुनने के लिए यह ड्राइवर अपनी रोजी रोटी छोड़ने को तयार हैं । इस पर उन्होंने अपनी जेब से निकलकर एक बड़ा नोट इनाम के तौर पर उस ड्राइवर को दिया नोट देखकर ड्राइवर हैरान होगया और फटाफट बोला आईए साहब आप बैठिए में छोड़ देता हूं , अब हैरान होने की बारी मेरी थी मैंने उससे पूछा अब भाषण नहीं सुनना आपको तो पलट के उसने बोला भाड़ में जाए भाषण आप बैठिए अब यह सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे आसमान से सीधे जमीन पर गिर गया " तो हम ऐसे ही तो हमारी भावनाएं ,हमारी क्रियाएं पराधीन हैं स्वाधीन नहीं हैं इसपर श्री आशुतोष जी ने अपनी  शंका मां श्री के सामने रखी कि मां श्री हमनजीस व्यवस्था में समाज में रहते हैं उसमें दूसरे के अनुसार भावना होना गलत क्यों हैं हम प्रेम वश या सम्मान वश करते हैं जो क्रिया वह गलत हैं क्या , पूज्या मां श्री ने शंका का समाधान करते हुए बताया की प्रेम करना आदर करना गलत नहीं हैं किंतु वह स्वाधीन होना चाहिए ना , मेरा मन हैं तो मैं प्रेम करुगा नाकी किसी के दवाब में ,किसी से काम निकलवाना हैं और में उसका इसीलिए आदर कर रहा हूं तो क्या वह सही में आदर हैं । स्वाधीन होकर क्रिया करना ही हमारा स्वभाव होना चाहिए और इसे ही शास्त्रीय भाषा में वीतरागता कहा गया हैं । राग न हो किसीसे अर्थात स्वाधीन होकर क्रिया करना । तो आवश्यक कामों को छः मुख्य नाम दिए गए हैं जो की हैं    
देवदर्शन, गुरु उपासना ,स्वाध्याय, संयम, तप, त्याग । 
सबसे पहले स्नान करके अपनी काया की मलीनता को साफ करना हैं अपने मुख की भी स्नान करना है क्योंकि रात भर में इसमें जो कार्बन डिपॉजिट हो जाता है स्नान करके हम उसकी शुद्धि कर देते हैं फिर स्वच्छ होकर देव दर्शन करना है , हमें कैसा बनना हैं हमारा लक्ष्य क्या हैं वह हमें पता होना चाहिए ,जिसने वह लक्ष्य प्राप्त कर लिया उनके दर्शन करने हैं ।हर चीज की विधि होती है और उसे विधि में पारंगत जो होते हैं उनका अनुसरण करते हैं अरिहंत भगवान इस विधि में पारंगत है तो हम उनके जीवन को देखकर उनका ध्यान लगाते हैं। गुरु वह जो हमें वह मार्ग बताते हैं जिससे हम अपने लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं तो उनकी उपासना करना हमारा परम आवश्यक कार्य बन जाता है।  अब जो अरिहंत भगवान द्वारा बताया मार्ग हैं गुरुओं के द्वारा दिया ज्ञान हैं उसका अध्यन स्वाध्याय हैं । अब जैसे हमने अपने शरीर की मालीनता को स्नान करके हटा दिया ऐसे ही अपने मन की मालीनता को हटाने के लिए भी हमें कुछ कार्य करना पड़ेगा तो जो कार्य हमारे मन की मालीनता को हटाए उसे हम तप कहते हैं । अब तप करने की विधि  कैसी हो इसलिए हम अरिहंत भगवान के जिनबिंब  के दर्शन करते हैं । कैसे बैठे हैं जिस मुद्रा में हमें भी वैसे ही एकाग्र स्थिर बैठकर ध्यान लगाना है । हमारी जो ब्रेन है उसके 90% भाग में कार्बन जमा हुआ है, और उसे हम कैसे हटा सकते हैं उसे हम वाइब्रेशन से हटा सकते हैं और यह वाइब्रेशंस कहां से आएंगे, यह तरंगे कहां से पैदा होगी, यह तरंगे पैदा होगी हमारे ध्यान से और वह ध्यान हमें सही मुद्रा में बैठकर सही विज्ञान के साथ करके प्राप्त होगा ।जैसे कि अरिहंत भगवान की मुद्राएं वैसे ही सीधे बैठ कर ,अपनी दृष्टि को नासा दृष्टि बनाना है और फिर ध्यान लगाना है जैसे-जैसे हम इसमें पारंगत होते जाएंगे वैसे-वैसे हमारी ब्रेन का कार्बन हटता चला जाएगा। अब ऐसे ही एक क्रिया और जरूरी है वह है दान त्याग जो हमने कमाया है उसका एक हिस्सा हमें दान के लिए आवश्यक निकालना चाहिए जो हम कमा रहे हैं वह क्या पूरा-पूरा सिर्फ हम अकेले कमा रहे हैं ? नहीं उसमें बहुत लोगों का भाग होता है ,जिसकी वजह से हम वह कमा पाते हैं ।अब एक पति जो बाहर व्यापार करने जाते हैं अगर वह यह सोचें कि मैं अकेला बाहर व्यापार करके कमा रहा हूं ।सिर्फ मैं ही कमा रहा हूं तो ऐसा नहीं है ।उसकी धर्मपत्नी पूरा घर संभाल रही है, उसके सारे कार्य संभाल कर, उसकी पूरी व्यवस्था संभाल रही है। उसको समय से भोजन दे रही है उसको समय से कपड़े दे रही है, उसके परिवार का ध्यान रख रही है तभी वह निश्चिंत होकर बाहर जाकर काम कर रहा है। और बहुत सारे ऐसे कारण होते हैं जिनकी वजह से हम अपना व्यापार कमाई अच्छे से कर सकते हैं तो इसीलिए हमें अपनी कमाई का एक भाग दूसरों के लिए त्यागना चाहिए दान में देना चाहिए। इसके बारे में विस्तार से आगे की कक्षाओं में मां श्री बताएंगी । धन्य हैं हम सब जिन्हें मां श्री के रूप में साक्षात सरस्वती मां मिली हैं जो धर्म को इतना सरल और आसान बना देती हैं कि हम अल्पज्ञ भी अच्छे से समझ जाते हैं । मां श्री के चरणों में बारंबार वंदना ।

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